Tuesday, April 4, 2017

माँ

घड़ी के काँटे सुबह के 10.30  की और इशारा कर रहे थे। ऑफिस जाने के वक़्त से थोड़ा सा ज्यादा। नहानघर में पानी गिरने की आवाज़ से ऑफिस पहुँचने में हुई देरी का अंदाज़ा लग रहा था। दूसरी बार बजी मोबाइल फ़ोन की घंटी ने अपनी ओर ध्यान खींचा और मोबाइल की स्क्रीन पर जो नाम दिख रहा था वो था Mummy ज़ल्दबाज़ी में कॉल रिसीव करके बिना सुने मैंने कहा -
हाँ Mummy, अभी लेट हो रहा हूँ, ऑफिस पहुँच कर बात करता हूँ।
Mummy - ठीक है बेटा। ऑफिस जा कर बात करना।

कुछ देर बाद वक़्त 11.15) ... 

ऑफिस के एक और दिन की शुरआत हो चुकी थी और दिनों जैसे। मैंने अपना फ़ोन उठाया और कॉल किया Mummy को।

मैंने पूछा - हाँ mummy क्या हुआ, कैसे फ़ोन किया था।
Mummy -  ऐसे ही। बस आज कढ़ाई ( नवरात्रों में अष्टमी के दिन की जाने वाली एक रस्म) की थी। पूरी, छोले और हलवा बनाया था खूब सारा तो तेरी याद आई। सबने खाया बस तू ही रह गया। तेरे भाई-भाभी (जो फ़िलहाल नौकरी के लिए विदेश में रह रहे हैं ) ने भी बनाकर खा लिया।
मैंने कहा - कोई बात नहीं mummy आप जब आओगे मेरे पास तो बना कर खिला देना। और किस्मत में होगा तो हर साल के जैसे कोई ना कोई घर से ले आएगा और मैं खा लूंगा।
Mummy - हाँ बेटा। कोई लाये तो खा लेना मुझे अच्छा लगेगा और तेरे पास सब बर्तन तो है ना? नहीं तो में बना कर ले आउंगी जब आना होगा। ठंडी खा लेगा ना?
मैंने कहा - हाँ mummy  खा लूंगा और सब बर्तन है मेरे पास जब आप आओगे तब बना देना।

फिर उसके बाद वही रोज़मर्रा की बातें और फ़िर
मैंने कहा - mummy,  मैं रात में फिर से फ़ोन करता हूँ। 
Mummy - ठीक है, मैं आराम करती हूँ सुबह 5 बजे से उठी हूँ। 
मैं - ठीक है। 

कुछ और देर बाद (वक़्त 11.27)..



लैपटॉप की स्क्रीन पर सहकर्मी का एक मेल - Prashad at my desk !! 

उसे बिना पढ़े मैं अपनी सीट से उठा एक ही सोच से की शायद मेरी माँ की इच्छा हर बार जैसे किसी के जरिये पूरी होने वाली है। पहुँचने पर देखा तो वही पूरी, छोले और हलवा रखे थे। उस वक़्त मुझे खाने से ज्यादा ख़ुशी इस बात की थी मेरी माँ को जब बताऊंगा की मैंने खा लिया था तो उनकी रुंधे गले से ख़ुशी के साथ यही निकलेगा - चलो अच्छा है खा लिया।

यही सिलसिला पिछले कुछ बीते सालो से बद्दस्तूर चला रहा है। माँ फ़ोन करती है ऐसे किसी मौके पर, मेरे वहां नहीं होने पर याद करती है और दुआ करती है की मुझे घर का खाना खिला पाती और उसकी वो दुआ किसी ना किसी बहाने पूरी हो ही जाती है। शायद यही वजह होगी की माँ को सबसे ऊपर माना गया है और मेरे लिए मेरे भगवान से भी बढकर। 


1 comment:

  1. माँ और पिता दोनों ही लगभग दिन के सैकड़ों समय पर यही सोचते हैं... उनके लिए यही एक बहुत बड़ी तसल्ली है कि हम वो सब कर ले रहे हैं , चाहे दूर होकर ही क्यों न करें...
    बहुत बढ़िया लिखा है, अंकुर

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